प्रभात पांडेय
देश में इस वक्त लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं। दो चरणों के लिए मतदान हो चुके हैं। जिन सीटों पर अभी मतदान होना है, वहां तमाम दल चुनाव प्रचार में अपने ताकत झोंक रहे हैं। इस बीच, मध्य प्रदेश से कांग्रेस के लिए बुरी खबर आई। दरअसल, यहां पार्टी के उम्मीदवार अक्षय कांति बम ने 29 अप्रैल को अपना नामांकन वापस ले लिया। इससे पहले ऐसा ही कुछ सियासी घटनाक्रम गुजरात के सूरत में भी घटा था।
बम के अचानक नामांकन वापस लेने से कांग्रेस ने भाजपा पर हमला बोला है। मध्यप्रदेश कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी ने कहा कि डरा धमकाकर नामांकन वापस कराया गया है। भाजपा लोकतंत्र की हत्या कर रही है।
चुनाव आते ही नेताओं का पाला बदलने का खेल भी शुरू जाता है। यह रिवाज पुराना है। ‘मौसम वैज्ञानिकों’ की फेहरिस्त लंबी हो जाती है। किसी को करियर की चिंता सताने लगती है तो किसी को अचानक ही मान-अपमान का ख्याल आने लगता है। लिहाजा नेता कांग्रेस से बीजेपी में तो बीजेपी से कांग्रेस में आने जाने लगते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी ये इलेक्शन इवेंट अभी जारी है। सबसे ज्यादा जिस पार्टी से नेता निकले हैं, वो है कांग्रेस। महाराष्ट्र से मिलिंद देवड़ा, बाबा सिद्दीकी, प्रमोद कृष्णम, बॉक्सर बिजेंद्र सिंह, अशोक चव्हाण, संजय निरुपम, सुरेश पचौरी, रोहन गुप्ता… आदि अब कांग्रेस के भूतपूर्व नेता हो चुके हैं। बॉक्सर बिजेंद्र सिंह ने जिस तरह से कांग्रेस को चौंकाया, उससे तो सभी हतप्रभ रह गए। तो वहीं टिकट नहीं मिलने से संजय निरुपम जिस तरह से बिफर गए, वह भी हैरान करने वाला था। हालांकि संजय निरुपम ने इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक किसी पार्टी का रुख नहीं किया है। लेकिन अहम सवाल ये हो जाता है कि जिस वजह से उन्होंने कांग्रेस छोड़ी है, आखिर वह इच्छा उन्हें किस पार्टी से पूरी होने वाली है।
उधर गुजरात में रोहन गुप्ता भी कांग्रेस को झटका दे चुके हैं। हालांकि रोहन गुप्ता को कांग्रेस ने अहमदाबाद पूर्व से टिकट दिया था, लेकिन रोहन गुप्ता के मुताबिक वह पार्टी के अंदर अपने और अपने पिता का अपमान सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने कांग्रेस को आज के समय के मुताबिक दिशाहीन बताया। क्योंकि वो सीएए का विरोध, राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में शामिल न होना और आम आदमी पार्टी से गठबंधन को लेकर खासे नाराज थे। रोहन गुप्ता की तरह ही कांग्रेस के एक और प्रखर प्रवक्ता रहे गौरव वल्लभ ने भी भाजपा का दामन थामा, जिन्होंने भी सनातन और राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा पर कांग्रेस के रुख से नाराज होकर कांग्रेस से मुक्ति ले ली। लेकिन बीजेपी में रोहन गुप्ता हो या गौरव वल्लभ- इनकी भूमिका क्या होगी, ये अभी साफ नहीं है। क्या बीजेपी में इनके मन की मुराद पूरी होगी?
कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वालों में सुरेश पचौरी, ज्योति मिर्धा, अर्जुन मोढवाडिया भी हैं। इनमें ज्योति मिर्धा को बीजेपी ने राजस्थान के नागौर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया है तो वहीं अर्जुन मोढवाडिया जो कभी गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस का चेहरा थे, वो अब गुजरात में पोरबंदर से विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार हैं। इस फेहरिस्त में जेएमएम छोड़कर आने वाली सीता सोरेन को बीजेपी ने दुमका से तो कांग्रेस छोड़कर आने वाली गीता कोड़ा को सिंहभूम सीट से अपना उम्मीदवार बनाया है।
इस तरह ऐन चुनाव के समय पाला बदलने वाले ऐसे नेताओं की सूची इससे कहीं ज्यादा लंबी है लेकिन सवाल अपनी जगह कायम है कि जिन नेताओं को पाला बदलने के बाद टिकट मिल गया, क्या वो जीत की गारंटी हैं? और जिनको टिकट नहीं मिला उनका पार्टी में भविष्य क्या होगा, क्या वो केवल इलेक्शन इवेंट के टिमटिमाते सितारे भर जाएंगे? बहरहाल, अब मौजूदा संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल पर वापस लौटते है: कांग्रेस अपने नेताओं को साथ जोड़े रखने में विफल क्यों है? यह एक विचारधारा और एक नेता/वंश का दावा करती है, लेकिन जब हिमंत बिस्वा सरमा से लेकर ज्योतोतिरादित्य सिंधिया तक जैसे नेता इसे छोड़ते हैं तो कहा जाता है कि वे इसकी ‘विचारधारा’ के प्रति निष्ठावान नहीं थे।
इसके पास लोगों को आकृष्ट करने के लिए सत्ता और संरक्षण की कुछ ताकत अभी भी बची है। हालांकि, यह लगातार कम हो रही है। शीर्ष पर एक सशक्त व्यक्तित्व/वंश होने पर इसका स्कोर 10/10 होता है। फिर भी यह प्रतिभाओं को गंवा रही है। यहां तक, इसके एक मुख्यमंत्री (पेमा खांडू, अरुणाचल प्रदेश) को पूरे विधायक दल के साथ भाजपा में शामिल होते देखा गया।
इसकी वैचारिक प्रतिबद्धता किस कदर कमज़ोर है, इसका पता इसी से चलता है कि मुख्यमंत्री या केंद्र सरकार में मंत्रालय संभालने वाले तक कई नेता कितनी आसानी से पाला बदलकर भाजपा में चले जाते हैं। ऐसे में मोदी-शाह की भाजपा की तरफ आकृष्ट होने के लिए सिर्फ पैसे, पॉवर और ‘एजेंसियों’ से संरक्षण को ही क्या सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है।
यह इतना स्पष्ट भी नहीं है, क्योंकि 1969 के बाद से पार्टी हर कुछ वर्षों में विभाजित होती रही है। आखिरी बड़ी टूट जनवरी 1978 में हुई, जब इसके सबसे वरिष्ठ नेताओं को कुछ महीनों के लिए भी सत्ता से बाहर रहना गंवारा नहीं हुआ। इनमें इंदिरा इज इंडिया बताने वाले डी।के। बरूआ, वसंतदादा पाटिल, वाई।बी। चव्हाण और स्वर्ण सिंह शामिल थे। फिर, गांधी-नेहरू परिवार में अटूट निष्ठा रखने वाले ए।के। एंटनी (क्या आपने यह तो सोचा भी नहीं था?) भी कांग्रेस-यू में शामिल हो गए और बाद में उन्होंने अपनी खुद की कांग्रेस (ए) बनाई। चरण सिंह, शरद पवार, वाई।एस। जगन मोहन रेड्डी, ममता बनर्जी और हिमंत बिस्वा सरमा, ये सभी अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाते गए और उनकी मूल पार्टी का पतन होता चला गया।
लगभग हर राज्य के विधानसभा चुनाव से पहले तमाम नेता दलबदल करते हैं और अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी ज्वॉइन करते हैं। इसमें से ज्यादातर टिकट की चाह में दूसरी पार्टी ज्वॉइन करते हैं और पार्टियां इस उम्मीद में इन्हें ज्वॉइन कराती हैं कि इनके ज्वॉइन करने से उनके चुनाव जीतने और सरकार बनाने की संभावना बढ़ जाएगी। जबकी अगर फायदे की बात करें तो फायदा उस पार्टी को होता है जिसे ये दलबदलू नेता ज्वॉइन करते हैं, जिससे इसके ज्यादा सीटें जीतने और सरकार बनाने की संभावना बढ़ जाती है या फिर उस नेता को फायदा होता है जो अपने क्षेत्र में एंटी इनकंबेंसी को देखते हुए कर एक नई पार्टी के सहारे चुनाव जीतने की कोशिश करता है।
यूपी में पिछले 3 चुनाव (2007, 2012, 2017) में 3 अलग-अलग पार्टियों को स्पष्ट बहुमत मिला और इन तीनो ही चुनाव में तमाम नेताओं ने चुनाव से पहले दलबदल करके नई पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा। आइए आंकड़ो के विश्लेषण के जरिए दलबदल की इस राजनीति में असली फायदा किसे होता है इसे समझने की कोशिश करते है। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 65 दलबदलू नेताओं को टिकट दिया, जिसमें से 52 नेता चुनाव जीत कर विधायक बने। यानि 80 फीसदी दलबदलू चुनाव जीते। वहीं सपा ने 26 दलबदलू नेताओं को टिकट दिया था, जिसमें से सिर्फ 3 नेता चुनाव जीतकर विधायक बने। यानि सिर्फ 11।5 फीसदी नेता चुनाव जीते। वही बीएसपी ने 29 दलबदलूओं को टिकट दिया था जिसमें सिर्फ 2 नेता जीत सके। (जीत का प्रतिशत लगभग 7 था)
‘डूबते जहाज को चूहे पहले छोड़कर भागते हैं, यह कहावत तो आपने सुनी होगी। सियासी दल चुनाव में अपनी हवा बनाने के लिए इस कहावत पर ही अमल करते हैं यानी दल-बदल कराकर वह यह दिखाना चाहते हैं कि उनके विरोधी दल डूबती हुई नैया हैं। लेकिन कई बार यह तकनीक उल्टी भी पड़ जाती है। वैसे भाजपा छोड़ते हुए मौर्या और चौहान ने लगभग समान कारण दिए कि पिछड़ों व दलितों की अनदेखी की जा रही थी और डा। आंबेडकर के संविधान को छोड़कर नागपुर का एजेंडा थोपने का प्रयास था। कमाल है, यह बात इन नेताओं को लगभग पांच वर्षों तक सत्ता सुख भोगने के बाद समझ में आई। इसलिए दल-बदल के इस कारण को स्वीकार करना तो कठिन है।
बहरहाल, इन दल-बदलुओं की वजह से राजनीतिक दलों के वफादार कार्यकर्ताओं को बहुत तकलीफ होती है, क्योंकि टिकट पाने की उनकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है। लेकिन लाचारी यह है कि उनके पास केवल तीन विकल्प रहते हैं। कुंठित होकर अपनी ही पार्टी में घुटते हुए अपने समय की प्रतीक्षा करते रहें, दल-बदल कर लें या अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी को हरा दें। इन वफादार कार्यकर्ताओं को मैनेज करना पार्टी आलाकमान के लिए बड़ी चुनौती होती है। हालांकि दल-बदल से तंग आकर अब कम से कम गोवा में जनता सुनिश्चित करना चाहती है कि प्रत्याशी जीतने के बाद दल-बदल नहीं करेगा, लेकिन अधिकतर जगहों पर राजनीति जाति के आधार पर होती है, इसलिए नेता के दल बदलने से अक्सर उसके जाति समर्थकों पर कोई असर नहीं पड़ता है, वह भी अपने नेता के साथ दल बदल लेते हैं।
दूसरी तरफ, भाजपा के पैकेज में कोई कमी नहीं है: पार्टी के मूल कैडर के लिए विचारधारा का फेविकोल, पाला बदलकर पार्टी में आने वालों के लिए पैसा, ताकत और संरक्षण, और वोटों के लिए ‘मोदी की गारंटी’। देश में आम चुनाव की दशा-दिशा तय करने वाला राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य फिलहाल तो ऐसा ही है।