बोलपुर। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन का मानना है कि नोबेल पुरस्कार जीतने से ज़्यादा जीवन में और भी महत्वपूर्ण काम हैं हैं। वह पुरस्कार को ‘पाना एक अच्छी बात’ मानते हैं, लेकिन उन्हें नहीं लगता कि इसके बिना उनका जीवन बर्बाद हो जाता। सेन को 1998 में अर्थशास्त्र और सामाजिक विकल्प सिद्धांत में उनके योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था। बोलपुर में अपने बचपन को याद करते हुए सेन ने रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित संस्था पाथा भवन में पढ़ाई और अपने दादा-दादी के साथ रहने को याद किया।
जिंदगी में नोबेल पुरस्कार जीतने से भी बड़े मकसद हैं और होने ही चाहिए। यह बात नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन ने प.बंगाल के बीरभूम जिले के बोलपुर में अपने पैतृक आवास पर एक साक्षात्कार में कही। उन्हें 1998 में अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में आर्थिक विज्ञान में स्वेरिग्स रिक्सबैंक पुरस्कार मिला था। यह सम्मान उन्हें कल्याणकारी अर्थशास्त्र और सामाजिक विकल्प सिद्धांत में योगदान के लिए दिया गया था। शायद तभी सेन ने कहा कि इसे पाकर मुझे अच्छा लगा। मुझे कुछ पैसे मिले और मैं बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी एक चैरिटी संस्था प्रतीची ट्रस्ट शुरू कर सका।
थोड़ी किस्मत भी शामिल… सेन ने कहा, इसमें थोड़ी किस्मत भी शामिल है कि आपको कोई पुरस्कार मिलता है या नहीं। हालांकि, जब नोबेल मेरे पास आया, तो उसने मुझे साक्षरता, बुनियादी स्वास्थ्य सेवा और लैंगिक समानता सहित अपने पुराने जुनूनों के बारे में तत्काल और जमीनी तौर पर कुछ करने का मौका दिया। मेरा उद्देश्य खास तौर से भारत और बांग्लादेश में यह काम करना था।
बची उम्र बस पढ़कर गुजार दूंगा
सेन कहते हैं, मुझे नहीं पता कि मेरे पास और कितने साल बचे हैं। मेरे पास जो भी वक्त है, उसमें बार-बार पढ़कर यह जानने में मुझे खुशी मिलेगी कि दुनिया में क्या हो रहा है।
देश में हिंदू-मुस्लिमों के साथ रहने की परंपरा
सेन ने कहा कि भारत में हिंदुओं और मुस्लिमों के साथ रहने की परंपरा है। हमारे देश में सदियों से हिंदू-मुस्लिम तालमेल और समन्वय से काम करते आए हैं। यह युक्तसाधना है, जिसका उल्लेख क्षितिमोहन सेन ने अपनी पुस्तक में किया है। हमें मौजूदा समय में युक्तसाधना के इस विचार पर जोर देने की जरूरत है।