सुप्रीम कोर्ट ने 8 जुलाई सोमवार को विजुअल मीडिया और फिल्मों में दिव्यांगो के ‘अपमानजनक’ फिल्मांकन के खिलाफ दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा कि दिव्यांगों पर अपमानजनक टिप्पणी करने या व्यंगात्मक तरीके से फिल्मांकन से बचना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि दिव्यांगो का तिरस्कार नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी काबिलियत को दिखाया जाना चाहिए। दिव्यांगता पर व्यंग्य या अपमानजनक टिप्पणी से जुड़े मामले पर कोर्ट ने कहा कि शब्द संस्थागत भेदभाव पैदा करते हैं, अपंग जैसे शब्द सामाजिक धारणाओं में बेहद ही निचला स्थान रखते हैं।
कोर्ट का यह फैसला निपुण मल्होत्रा द्वारा दायर याचिका पर आया, जिसमें कहा गया था कि हिंदी फिल्म ‘आंख मिचोली’ में दिव्यांग व्यक्तियों के प्रति अपमानजनक चीजें दिखाई गई हैं। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा, ‘शब्द संस्थागत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं और दिव्यांगता व्यक्तियों के बारे में सामाजिक धारणा में ‘अपंग’ जैसे शब्द भेदभाव वाले हैं’। दिव्यांगता से ग्रस्त लोगों को मजाक बनाना, उन्हें कमजोर समझना और उनको दूसरों पर आश्रित समझना एक भूल और सामाजिक रूप से एक गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है।
आजकल हम ‘दिव्यांगता’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करते। हम उन्हें ‘स्पेशल बच्चे’ या ‘स्पेशल व्यक्ति’ कहते हैं। दिव्यांगता कोई अभिशाप नहीं है, बल्कि कई बार तो हम सब ये देखते हैं कि दिव्यांगों में ऐसी-ऐसी प्रतिभाएं हैं, जो शारीरिक सक्षमों में से ज्यादातर में नहीं हैं। अज्ञानता, अशिक्षा और असहिष्णुता के कारण कुछ लोग दिव्यांगों का मजाक उड़ाया करते हैं, जो दुखद और अक्षम्य है। मुझे दुख होता है, जब देखता हूं कि कुछ लोग किसी का नाम ही लंगड़ा, अंधरा, लुल्हा रख डालते हैं बिना ये सोचे हुए कि इससे उन्हें कितना दुख पहुंचता होगा, कितना बुरा लगता होगा। इस मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है। इस दर्द को, इस अमानवीयता को नरेंद्र मोदी सरकार ने संवेदनशीलता के साथ महसूस किया और न सिर्फ दिव्यांग को दिव्यांग का नाम दिया बल्कि एक संवेदनशील विज़न के साथ उनके लिए कार्यक्रम भी बनाया।
आंखमिचौली ऐसी पहली फिल्म नहीं, जिसने किरदारों को इस रूप में पेश कर दर्शकों को हंसाने की कोशिश की। इस तरह की कॉमिडी से हिंदी फिल्में भरी पड़ी हैं। तीन दशक पहले आई फिल्म बोल राधा बोल में एक्टर कादर खान को दिन ढलते ही दिखना बंद हो जाता था, वहीं जुदाई में कमीडियन जॉनी लीवर की पत्नी बनी उपासना सिंह बस तीन शब्द ही बोल पाती हैं। कुछ ऐसा ही किरदार नई वाली गोलमाल में तुषार कपूर का था।
फिल्म के किरदारों के नाम भारतीय क्रिकेटरों से मिलते हैं, जैसे पिता का नाम नवजोत सिंह, एक बेटे का हरभजन तो दूसरे का युवराज सिंह। संयोग देखिए कि हाल ही में असली वाले हरभजन और युवराज सिंह भी सोशल मीडिया पर डाले अपने एक विडियो को लेकर ऐसे ही विवाद में फंस चुके हैं। इसमें ये दोनों क्रिकेटर सुरेश रैना के साथ एक गाने पर लंगड़ाते हुए चल रहे हैं। ये बताना चाह रहे थे कि लीजेंड क्रिकेट लीग में लगातार 15 दिन तक खेलने से इनके शरीर का यह हाल हो गया है। लेकिन डिसएबल्ड पीपल के लिए काम करने वाली एक संस्था ने इसे दिव्यांग का अपमान बताते हुए दिल्ली के थाने में शिकायत दे दी। सोशल मीडिया पर ट्रोल होने के बाद हरभजन सिंह ने विडियो हटाते हुए माफी भी मांगी।
मोटे लोगों को तो हमेशा कमीडियन के रोल ही मिलते रहे। टुनटुन, मुकरी, प्रीति गांगुली, गुड्डी मारुति को एक जैसी कॉमिडी में फिट कर दिया गया। दर्शकों ने भी ऐसे किरदारों पर खूब ठहाके लगाए। पहले मोटापा, रंग या किसी भी तरह की अपंगता पर मज़ाक बनाया जाता था तो लोग आहत नहीं होते थे। समय के साथ इस सोच में काफी बदलाव आया है। सोशल मीडिया के इस युग में अब छोटी सी बात पर भी लोगों की भावनाएं आहत होने लगी हैं। इसलिए, अपंगता जैसे विषय पर संवेदनशीलता की उम्मीद भी बढ़ गई है, खासकर, जब ऐसे लोग खेलों से लेकर हर फील्ड में सफलता के झंडे गाड़ रहे हों। इस विषय को संवेदनशील तरीके से पेश करने की लिस्ट में कोशिश, स्पर्श, सदमा, खामोशी, ब्लैक, इकबाल, तारे ज़मीन पर, बर्फी जैसी फिल्मों को भी जोड़ा जा सकता है।
जो लोग शारीरिक रूप से दिव्यांग नहीं होते, उनकी भी कुछ अयोग्यताओं के कारण हंसी उड़ाई जाती है। हम सभी हर काम एक ही तरीके से नहीं कर सकते। मान लीजिए, आप बहुत अच्छा गाते हैं लेकिन अगर आप मुझे गाने को कहें, तो मैं इतना बुरा गाऊंगा कि आप शायद मुझ पर हंसने लगें। समाज मानसिक तौर पर दिव्यांग है। चाहे आपकी नाक थोड़ी टेढी-मेढी हो, तो भी लोग आपका मजाक बनाएंगे। हमेशा कोई न कोई ऐसा होगा, जो किसी न किसी चीज में खुद को आपसे बेहतर समझेगा। आप जो हैं, उसका बेहतरीन लाभ उठाएं, यह मत सोचिए कि कोई और आपके बारे में क्या सोच रहा है या आपके ऊपर हंस रहा है। आप अपने साथ कुछ और कर सकते हैं और अपने लिए खुशी का एक बड़ा स्रोत बन सकते हैं।
भारत में 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार दिव्यांग लोगों की संख्या लगभग 26.8 मिलियन है, यह जनसंख्या देश की कुल आबादी का 2.21 प्रतिशत है। हालांकि दिव्यांगता के मुद्दों पर काम कर रहे दिव्यांग अधिकार कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के अनुसार जनगणना में ये संख्या वास्तविक संख्या का बहुत छोटा सा हिस्सा है। दिव्यांग व्यक्तियों का ‘अंतरराष्ट्रीय दिवस’ सिर्फ शारीरिक स्थितियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मानसिक दिव्यांगता भी शामिल है। नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस द्वारा 2018 में किए गए एक सर्वे के अनुसार लगभग 3.9 मिलियन लोग साइकोसोशल डिसैबिलिटीज (मनोसामाजिक दिव्यांगता) से पीिड़त है। इस तरह की दिव्यांगता में डिप्रेशन से पीड़ित होना और स्ट्रेस डिसऑर्डर जैसी अन्य मानसिक बीमारियों और डिस्लेक्सिया या डाउन सिंड्रोम सहित दिमागी बीमारी से पीिड़त होना शामिल है।
महत्वपूर्ण कानूनी उपायों के बावजूद दिव्यांग व्यक्तियों को आज भी सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। यह भेदभाव दिव्यांग जनों के हित में बने कानूनों और योजनाओं के कार्यान्वयन की खामियों को रेखांकित करता है। दिव्यांग जनों के अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी इस मामले में हमारे समाज में पीढ़ियों से चली आ रही रूढ़ियों का प्रतिफल है।