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सामाजिक समरसता से बनेगा सशक्त भारत

– प्रो.संजय द्विवेदी

समता, ममता और समरसता हमारे भारतीय लोकजीवन का अभिन्न अंग है। हम जिस देश में रहते हैं उसके ऋषि कहते हैं- ‘सर्वभूतहिते रताः।’ प्रकृति से साथ हमारा संवाद बहुत पुराना है। इसलिए हमने अपनी समूची सृष्टि को स्वीकारा। किसी को विरोधी नहीं माना। पेड़,पहाड़, नदियां, समुद्र, वनस्पतियां, जलचर,नभचर, जीव-जंतु, मनुष्य सबमें ईश्वर का वास मानने वाले हम ही हैं। हम ही कह पाए जो जड़ में है वही चेतन में है। कण-कण में ईश्वर का वास मानने वाली संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है। काल के प्रवाह में विचलन स्वाभाविक है। आज हमें समता, समरसता और अधिकारों की बात करनी पड़ रही है। सुधारों की बात करनी पड़ रही है, क्योंकि विचलन ने हमें उन मूल्यों से विरत कर दिया, जहां एक आदमी को ईश्वर बन जाने की स्वतंत्रता थी। आदमी का मनुष्य बनना और फिर देवत्व की तरफ बढ़ना साधारण नहीं है। उसके मूल्यनिष्ठ होते जाते की मुनादी है, घोषणा है। ऋषि कहते हैं- ‘मर्नु भवः’ यानि मनुष्य बनो। यही बाद बाद में गालिब के मुंह से निकलती है-
यूं तो मुश्किल है हर काम का आसां होना
आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना।

यानि जन्म से आप ‘आदमी’ हो सकते हैं किंतु ‘मनुष्य’ या ‘इंसान’ एक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही आप बनते हैं। हमारे समाज में मनुष्य बनाने के स्कूल थे। हमारा परिवार, समाज और विद्यालय तथा धर्मगुरु इस प्रक्रिया को संभव करते थे। मनुष्य-मनुष्य में भेद को हमने अपराध माना। इसीलिए गुरू घासीदास कहते हैं- मनखे-मनखे एक हैं। इसी बात को गांधी छुआछूत के संदर्भ में कहते हैं- “अस्पृश्यता ईश्वर और मानवता के प्रति अपराध है।” हिंदू समाज में आई जड़ता को तोड़ने के लिए समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन चलते रहे हैं। हिंदु स्वयं एक ऐसा समाज है, जिसने अपने आत्मसुधार के लिए निरंतर यत्न किए हैं। हम सब ऋषियों की संतति हैं यह भाव लेकर काम करते रहे हैं। गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, कबीर, नानक, गुरू गोरखनाथ, गुरू घासीदास, संत रविदास से लेकर एक पूरी परंपरा जड़ताओं और कुरीतियों पर प्रहार करते हुए आत्मालोचन के लिए प्रेरित करती रही है। समय के सच को समझना और अपने समय के कठिन सवालों से जूझना हिंदुत्व की प्रकृति रही है। गुलामी के कालखंड में आई कुछ नकारात्मक वृत्तियों को समाप्त करने के लिए राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी, बाबा साहब डा.भीमराव आंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पंडित सुंदरलाल शर्मा जैसे अनेक नायक हमारे समाज में समरसता के मंत्रदृष्टा बनकर आते रहे हैं। कोई भी समाज कुरीतियों से मुक्त नहीं है। हर समाज में समय के साथ कुछ गिरावट आती है। मूल बात यह है कि क्या समाज अपनी गिरावट के विरूद्ध तनकर खड़ा होता है या नहीं। उसमें आत्मालोचन और आत्मसमीक्षा की प्रवृत्ति है या नहीं। हिंदु समाज इस अर्थ में खास है कि उसने प्रश्नाकुलता को समाज में मान्यता दी है। वह सती प्रथा, बाल विवाह, छूआछूत, जातीय विद्वेष के विरूद्ध खड़ा हुआ और स्त्री शिक्षा, स्त्री को न्याय,मनुष्य की बराबरी के मानकों को स्वीकार करते हुए एक नया भारत बनाने की ओर है। समाज में ‘जातिद्वेष’ मान्यता नहीं है।

हम मानते रहे हैं कि जाति का गौरव होना चाहिए किंतु जाति भेद ठीक नहीं। हमारे अनेक ऋषि व्यास, बाल्मीकि, संत रविदास,संत रसखान हमारे श्रद्धास्थान हैं। क्योंकि हमें बताया गया और हमने माना भी कि “जाति-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।” हमारी परंपरा के सर्वोच्च नायक भगवान श्री राम के समरसता इन्हीं गुणों से मर्यादा पुरूषोत्तम बने। अपनी उदार भावनाओं से वे ‘शबरी के राम’ हैं तो ‘बाल्मीकि के भी राम’ हैं। वे तुलसी के राम हैं तो कबीर के भी राम हैं। वे हनुमान के ह्दय में हैं तो आहिल्या के भी उद्धारकर्ता हैं। वे निषादराज के परममित्र हैं, तो किंष्किंधानरेश सुग्रीव के भी मित्र हैं। इस परंपरा को समझने वाले ही भारत के मन को समझ सकते हैं।

भारतीय समाज को लांछित करने के लिए उस पर सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्था का है। जबकि वर्ण व्यवस्था एक वृत्ति थी, टेंपरामेंट थी। आपके स्वभाव, मन और इच्छा के अनुसार आप उसमें स्थापित होते थे। व्यावसायिक वृत्ति का व्यक्ति वहां क्षत्रिय बना रहने को मजबूर नहीं था, न ही किसी को अंतिम वर्ण में रहने की मजबूरी थी। अब ये चीजें काल बाह्य हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त है। जाति भी आज रूढ़ि बन गयी किंतु एक समय तक यह हमारे व्यवसाय से संबंधित थी। हमारे परिवार से हमें जातिगत संस्कार मिलते थे-जिनसे हम विशेषज्ञता प्राप्त कर ‘जाब गारंटी’ भी पाते थे। इसमें सामाजिक सुरक्षा थी और इसका सपोर्ट सिस्टम भी था। बढ़ई, लुहार, सोनार, केवट, माली, निषाद, बुनकर ये जातियां भर नहीं है। इनमें एक व्यावसायिक हुनर और दक्षता जुड़ी थी। गांवों की अर्थव्यवस्था इनके आधार पर चली और मजबूत रही। आज यह सारा कुछ उजड़ चुका है। हुनरमंद जातियां आज रोजगार कार्यालय में रोजगार के लिए पंजीयन करा रही हैं। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था दोनों ही अब अपने मूल स्वरूप में काल बाह्य हो चुके हैं। अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसे में जाति के गुण के बजाए, जाति की पहचान खास हो गयी है। इसमें भी कुछ गलत नहीं है। हर जाति का अपना इतिहास है, गौरव है और महापुरुष हैं। ऐसे में जाति भी ठीक है, जाति की पहचान भी ठीक है, पर जातिभेद ठीक नहीं है। जाति के आधार भेदभाव यह हमारी संस्कृति नहीं। यह मानवीय भी नहीं और सभ्य समाज के लिए जातिभेद कलंक ही है।

भारत के इतिहास में तमाम ऐसे पृष्ठ हैं, जिसमें हमारी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए समाज के हर वर्ग के लोगों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है। विदेशी आक्रामणों से जूझते हुए भी हमारे समाज ने अपनी सभ्यता और संस्कृति को जीवित रखा। बाद के कालखंड में विभेदकारी शासकों ने भारतीय समाज में विभाजन के बीज बोए क्योंकि उन्हें अपने राज को स्थाई बनाना था। लोगों के हाथ से हुनर छीन कर उन्हें दास बनाना उनका मकसद था। यह काम बिना बंटवारे की राजनीति से संभव नहीं था। भारत के सामने अपनी एकता को बचाने का एक ही मंत्र है,‘सबसे पहले भारत’। इसके साथ ही हमें अपने समाज में जोड़ने के सूत्र खोजने होगें। भारत विरोधी ताकतें तोड़ने के सूत्र खोज रही हैं, हमें जोड़ने के सूत्र खोजने होगें। किन कारणों से हमें साथ रहना है, वे क्या ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं जिनके कारण भारत का होना जरूरी है। इन सवालों पर सोचना जरूरी है। अगर वे हमारे समाज को तोड़ने, विखंडित करने और जाति, पंथ के नाम पर लड़ाने के लिए सचेतन कोशिशें चला सकते हैं, तो हमें भी इस साजिश को समझकर सामने आना होगा। भारत का भला और बुरा भारत के लोग ही करेगें। इसका भला वे लोग ही करेंगें जिनकी मातृभूमि और पुण्यभूमि भारत है। वैचारिक गुलामी से मुक्त होकर, नई आंखों से दुनिया को देखना। अपने संकटों के हल तलाशना और विश्व मानवता को सुख के सूत्र देना हमारी जिम्मेदारी है ।

भारत अपनी लंबी गुलामी से उपजी इसी पीड़ा को आजतक भोग रहा है। कोई भी राष्ट्र इतने लंबे समय की गुलामी के बाद तमाम राष्ट्रों की तरह समाप्त हो जाता, किंतु भारत खड़ा है क्योंकि उसके पास परंपरा का उत्तराधिकार था। ऋषियों और संतों द्वारा दिया गया आध्यात्मिक उत्तराधिकार था। भक्ति ने भारत को हमेशा बचाया और बदला है। हमारी संत परंपरा हमारी जड़ों में एकता और समरसता के सूत्र पिरोती रही है। उनकी शरण में भारत खुद को तलाशता रहा है और सामने खड़े प्रश्नों से मुक्ति पाता रहा है। कुंभ जैसे आयोजन उसके नवपरिष्कार का अवसर देते रहे हैं, तो समाज में प्रवास कर संत शक्ति उसकी शक्ति को संगठित करती रही है। आज समरसता के मंत्रदृष्ठा अनेक सामाजिक संगठन भी सक्रिय होकर अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। भारत जाग रहा, अपना पुर्नअविष्कार कर रहा है। अपनी सांस्कृतिक धारा से जुड़कर अपने संकटों के हल तलाश रहा है। यही यात्रा समरसता की वाहक भी और प्रस्थान बिंदु भी। सामाजिक एकता और सामाजिक समरता के बिना हम ‘एक भारत और श्रेष्ठ भारत’ नहीं बना सकते। इसलिए एकत्व के तत्व खोजना और मनों को जीतना हमारी कोशिश होनी चाहिए। यही बात ‘भारत’ को ‘समर्थ भारत’ बनाएगी।
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान,नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)

Aryavart Kranti
Author: Aryavart Kranti

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