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तेज आवाज और शोरगुल डाल रहा है सेहत पर बुरा असर

ईयरफोन्स, ब्लूटूथ बडस और अब पॉड्स इन सब डिवाइस के आप भी शौकीन होंगे। चाहे सुबह की सैर पर जाना हो या दफ्तर में काम करना हो। जिम में एक्सरसाइज़ के वक्त, पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करते हुए लोगों के कान में ये दो छोटे पीस लगे रहते हैं। इन्हें लगाए कोई संगीत में डूबा रहता है तो कोई किसी से बात कर रहा होता है। सबसे पहले हम हमारे इयरफोन्स खोजते हैं। लेकिन क्या अपने सोचा है कि कुछ समय का सुकून आपको जिंदगी भर का इयर लॉस दे सकता है। हर आयु के लोगोंको कम उम्र से ही हियरिंग लॉस का सामना करना पड़ रहा है। कान-नाक-गला रोग विशेषज्ञों के पास लगातार इस तरह की शिकायतों के साथ लोग पहुंच रहे है। इसके अलावा मौसम में बदलाव के दौरान अलग-अलग वायरस एक्टिव हो जाते है। जो शरीर को नुकसान पहुंचा देते है।
अब ये आज की ज़रूरत बन गया है या बुरी लत, पता नहीं, लेकिन जिस तरह से लोग इसे हर वक्त लगाए रहते हैं, वह उनके कानों के लिए तो बिलकुल ठीक नहीं। इसके साइड इफेक्ट्स को लेकर आ रहीं तमाम खबरें भी यही कह रही हैं। और बेहतर समझना है तो मशहूर प्लेबैक सिंगर अलका याज्ञनिक का केस देख सकते हैं, जिन्हें हाल ही में एक रेयर न्यूरो डिज़ीज़ से ग्रस्त होने का पता चला।

सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिए अलका ने बताया कि उनकी सुनने की क्षमता प्रभावित हो गई है। उन्होंने लिखा, “कुछ दिनों पहले विमान से उतरते हुए महसूस हुआ कि मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है। डॉक्टरों ने सेंसरीन्यूरल हियरिंग लॉस डायग्नोज़ किया। मैं शॉक्ड रह गई और संभलने में कुछ वक्त लगा लेकिन अब अपने फैंस और शुभचिंतकों से यही कहना चाहती हूं कि तेज़ आवाज़ में संगीत बिलकुल न सुनें और हेडफोन्स से दूर रहें।” अलका की यह बीमारी चौतरफा शोर से घिरे हर व्यक्ति के लिए खतरे की घंटी है। डॉक्टरों के मुताबिक, कान के अंदरूनी हिस्से में चोट लगने से मस्तिष्क से संचार में दिक्कत आने लगती है। इससे धीरे-धीरे सुनाई देना बंद होता जाता है और कई मामलों में किसी भी दवा या सर्जरी से यह बीमारी दूर नहीं हो पाती। लगातार तेज़ आवाज़ में कुछ सुनने या विस्फोट की वजह से भी यह समस्या आ सकती है।

तेज आवाज में घंटों अपने कंप्यूटर, मोबाइल फोन और अन्य गेमिंग उपकरणों का इस्तेमाल करने से कम उम्र में ही सुनने की क्षमता कम हो रही है। पहले जहां 60 – 65 वर्ष की उम्र यह समस्या देखने को मिलती थी, अब वह कम उम्र में ही युवाओं और बच्चों को अपना शिकार बना रही है।

इन दिनों ओपीडी में हर सप्ताह 5 से ।0 मरीज ऐसे ही आ रहे हैं। जो गंभीर सेंसरी न्यूरल नर्व हियरिंग लोस का शिकार हैं। यह एक प्रकार का डिसऑर्डर है। यह वायरल अटैक भी है, जिसके शिकार मरीजों की उम्र 25 से 60 वर्ष तक है। इस बीमारी की वजह वायरल इंफेक्शन के अलावा जन्मजात व बढ़ती उम्र भी है। यह एक ऐसा डिसऑडर है, जिनमें सुनने की क्षमता प्रभावित होती है। कान के अंदर कॉकलियर तंत्रिका दिमाग तक ऑडियो सिगनल को पहुंचाती है। उसके डेमेज होने से सुनाई देना बंद हो जाता है।

कुछ दिनों पहले, उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग ने चेताया भी था कि दो घंटे से अधिक ईयरफोन का इस्तेमाल करने से सुनने की क्षमता कम हो सकती है। अमूमन, 75 डेसिबल तक की आवाज़ सुरक्षित मानी जाती है, लेकिन 50 डेसिबल से तेज़ आवाज़ में ईयरफोन से लगातार कुछ सुन रहे हैं तो बहरेपन का खतरा चार गुना बढ़ जाता है।

पिछले कुछ सालों में ईयरफोन के कारण कान खराब होने के मामले और सड़क दुर्घटनाएं बढ़ गई हैं. हाल के वर्षों में यह एक गंभीर समस्या के रूप में सामने आया है। 50 फीसदी युवाओं में कान की समस्या का कारण ईयरफोन का लगातार इस्तेमाल करना है। ईयरफोन्स के लगातार इस्तेमाल से कान में दर्द, सिर दर्द, अनिंद्रा जैसी समस्याएं आम बात है। ऐसा एक रिसर्च में भी सामने आ चुका है।

तेज आवाज में संगीत सुनने से मानसिक समस्याएं हो सकती हैं, जबकि हृदय रोग और कैंसर के भी चांसेस बढ़ते हैं। ईयरफोन्स में 100 डीबी तक आवाज आ सकती है जो आपके कान को डेमैज करने के लिए काफी है। आमतौर पर कान 65 डेसिबल की आवाज सह सकता है, जबकि 85 डेसिबल से अधिक आवाज कानों के लिए खतरा है। ईयरफोन पर अगर अगर 40 घंटे से ज्यादा 90 डेसिबल की ध्वनि सुनी जाए तो कान की नसें पूरी तरह डेड हो जाती हैं।

लंबे समय तक शोरगुल भरे माहौल में रहने या लाउड म्यूजिक सुनने से ब्लड प्रेशर और हार्ट रेट पर बुरा असर पड़ता है। बॉडी में कॉर्टिसोल हॉर्मोन का स्तर बढ़ने लगता है, जो तनाव का शिकार बनाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनियाभर में 1 अरब लोगों पर जिंदगीभर के लिए सुनने की क्षमता खो देने का खतरा मंडरा रहा है। इसकी वजह गाने सुनने से जुड़ी उनकी गलत आदतें, लाउड म्यूजिक और शोर है। तेज म्यूजिक की वजह से कान के भीतर मौजूद कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। ये कोशिकाएं ही आवाज को सिग्नल में तब्दील कर दिमाग तक पहुंचाती हैं। जिससे हम सुन पाते हैं। 85 डेसिबल से ज्यादा तेज आवाज बहरेपन की वजह बन सकती है।

अक्सर स्टूडेंट्स तनाव से राहत पाने, खुद को रिलैक्स करने और फोकस बढ़ाने के लिए ईयरफोन लगाकर पढ़ाई करते हैं। मेडिकल जर्नल PMC के अनुसार यह आदत उनकी याददाश्त और बौद्धिक क्षमता पर बुरा असर डाल सकती है। सवालों को हल करना, याद करना और पढ़ाई से जुड़े दूसरे काम पूरे कर पाना मुश्किल हो जाता है। फैक्ट्स और घटनाओं का सीक्वेंस नहीं याद रहता।

तेज आवाज में म्यूजिक सुनने से पढ़ने, सोचने और समझने की क्षमता भी बुरी तरह प्रभावित होती है। इंट्रोवर्ट स्टूडेंट्स पर इसका ज्यादा बुरा असर पड़ता है। तनाव से बचने के लिए म्यूजिक सुनने से ध्यान भटक सकता है। खासकर पढ़ाई के दौरान लिरिक्स वाले गाने सुन रहे हैं, तो ध्यान भटकने की आशंका और बढ़ जाती है। वहीं, धीमी आवाज में इंस्ट्रूमेंटल म्यूजिक सुनने से नींद आ जाती है।

दरअसल, हमारी ज़िंदगी में शोर कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। शादी ब्याह के मौके पर या किसी भी सार्वजनिक व धार्मिक कार्यक्रम के दौरान बड़े-बड़े लाउडस्पीकर्स पर अत्यधिक तेज़ आवाज में संगीत बजाना आम हो चुका है। यह कितना घातक हो सकता है, कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के सागर ज़िले में हुई दर्दनाक घटना से समझा जा सकता है। यहां दीवार गिरने से उसमें दबकर नौ बच्चों की मौत हो गई थी। जांच में सामने आया कि लाउडस्पीकर के तेज़ शोर की वजह से यह जर्जर दीवार ढह गई। चार महीने पहले उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में भी ऐसा ही हुआ था, जहां शादी समारोह में बज रहे तेज़ डीजे के कारण कच्ची दीवार ढहने से दो युवकों की मौत हो गई थी।

जब दीवार यह शोर बर्दाश्त नहीं कर पा रही तो हमारे शरीर पर क्या असर होता होगा। कोविड महामारी के बाद से कई ऐसे विडियो वायरल हुए हैं, जिनमें शोर-शराबे वाले संगीत पर नाचते हुए लोग अचानक गिरे और फिर उठ ही नहीं पाए। साफ है कि यह शोर हमारे कान ही नहीं, दिल की धड़कनों के लिए भी खतरा बन चुका है।

Aryavart Kranti
Author: Aryavart Kranti

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