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बढ़ती आबादी के साथ बढ़ती समस्याएं…!

सरकार की ओर से विकास की अनेक योजनाएं बनाए जाने के बावजूद आज हमारा देश अन्य विकसित देशों की तरह विकास के पथ पर अग्रसर होता हुआ नहीं प्रतीत हो रहा है। रोजगार और सामाजिक सुरक्षा आदि की तमाम योजनाएं बनाए जाने के बावजूद तेजी से बढ़ती हमारी जनसंख्या सभी प्रयासों पर पानी फेर देती है। सरकार और समाज मिलकर लोगों की सुविधा के लिए विविध प्रकार के संसाधन जुटाते हैं, लेकिन आबादी के निरंतर बढ़ते बोझ के कारण समस्याएं वहीं की वहीं रह जाती है। यानी तमाम प्रयासों के बावजूद समस्या का समग्र निदान नहीं हो पाता है।

समुचित संसाधन के अभाव में ऐसी जनसंख्या कुपोषण समेत अन्य समस्याओं की चपेट में आकर न केवल अपना जीवन निर्थक बना लेती है, बल्कि देश का सामाजिक ताना-बाना भी तहस-नहस कर डालती है। देश की सीमाओं से पड़ोसी देशों से हो रही घुसपैठ ने भी देश पर करोड़ों जनसंख्या का ऐसा बोझ लादा है, जिसकी चुनौतियों के बीच विकास का लक्ष्य प्राप्त करना कतई सरल नहीं है। ऐसे में धरोहर के रूप में मिली जीवन शैली, संस्कृति, पर्यावरण, आध्यात्मिक विरासत, इतिहास, भूगोल, वन्य जीवन आदि बुरी तरह प्रभावित हो जाते हैं, जिनको सुधारने के लिए सरकारों को अंतरराष्ट्रीय सहायता व कर्ज आदि के लिए दूसरों के समक्ष हाथ फैलाना पड़ता है। कई बार देश को युद्ध, दंगे, भुखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार व रोग आदि का सामना भी करना पड़ता है।

क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत दुनिया का सांतवा बड़े देश है, लेकिन जनसंख्या की दृष्टि से सबसे पहला। लगभग 1.4 अरब लोगों की आबादी के साथ भारत चीन को पीछे छोड़ दुनिया की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन रहा है। इस आबादी का आधे से ज्यादा यानी लगभग 53 फीसदी 30 साल से कम आयु के हैं। भारत के इस जनसंख्या-लाभ की चर्चा सालों से हो रहे हैं लेकिन नौकरियां ना होने के कारण करोड़ों युवा अर्थव्यवस्था पर बोझ बनते जा रहे हैं। 2011 के बाद से जनगणना नहीं हुई है, तो आबादी के आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं। इसी 15 अगस्त को देश को संबोधित करते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘सबसे बड़ा लोकतंत्र और बहुत से लोगों की राय है कि जनसंख्या की दृष्टि से हम विश्व में एक नंबर पर हैं… इतना बड़ा देश…140 करोड़ का देश…।’ यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र के इस आकलन की पुष्टि करता है, जिसमें कहा गया था कि 1.42 अरब की आबादी के साथ चीन को भारत पीछे छोड़ देगा। इसमें दो राय नहीं है कि भारत की आबादी 15 अगस्त, 1947 के 34.5 करोड़ के आंकड़े से कम से कम चार गुना हो चुकी है।

भारत अभी युवा देश है। अगर हम 15 से 29 साल की उम्र वालों को नौजवान मानें, तो भारत में औसत उम्र 28 साल के करीब है। यह 2026 तक बढ़कर 30 और 2036 तक 35 साल हो जाएगी। वैसे, भारत में भी टोटल फर्टिलिटी रेट (यानी एक महिला के बच्चों की औसत संख्या) 2.1 के रिप्लेसमेंट रेट से नीचे है, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर इसमें जो असंतुलन है, वह एक चुनौती है। खासकर, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जहां टोटल फर्टिलिटी रेट राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। इस असंतुलन को दूर करना होगा। यह काम महिलाओं की शिक्षा में सुधार लाकर और उन्हें सशक्त कर किया जा सकता है।
देश का जनसंख्या-लाभ एक सुलगती हुई चिंगारी है। वह कहती हैं, “हमारे पास कितने सारे लोग हैं जो पढ़े लिखे हैं, जिनकी पढ़ाई के लिए उनके परिवार ने पैसा खर्च किया है लेकिन आज उनके पास नौकरी नहीं है, यह तथ्य बेहद डरावना है। यह सिर्फ अर्थव्यवस्था के संभावित नुकसान का सवाल नहीं है, यह पूरी पीढ़ी के नुकसान की बात है।”

आर्थिक दृष्टिकोण से देखें, तो बढ़ती जनसंख्या के कारण कार्यबल में भी वृद्धि हो रही है, जिसके लिए रोजगार के पर्याप्त अवसरों के सृजन की आवश्यकता है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, भारत में बेरोज़गारी अब तक उच्चतम स्तर (8.5 प्रतिशत) पर है। ग़रीबी दूसरी बड़ी चुनौती है, जहां लगभग 16.4 प्रतिशत आबादी ग़रीब हैं और लगभग 4.2 प्रतिशत लोग भीषण ग़रीबी का सामना कर रहे हैं। जनसंख्या में वृद्धि के साथ ग़रीबी और आर्थिक असमानता जैसी समस्याओं से निपटना और मुश्किल हो जाएगा, जिसके लिए संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे और मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच की आवश्यकता है।
बढ़ती आबादी के कारण आवास, परिवहन, स्वास्थ्य और शिक्षण सुविधाओं से जुड़े बुनियादी ढांचे का विस्तार करने की ज़रूरत भी बढ़ जाती है। एक बहुत बड़ी आबादी की ज़रूरतों को पूरा करना एक मुश्किल काम बन जाता है और आबादी का एक बड़ा हिस्सा बदहाल हालात में जीने के लिए मजबूर हो सकता है।
विशाल जनसंख्या किसी देश का विपुल संसाधन है और गंभीर समस्या भी। सभी पार्टियों की सरकारों को इससे रूबरू होना पड़ेगा। चुनावी स्पर्धा के समय विभिन्न दल सरकारी नीतियों को राजनीतिक लाभ-हानि की दृष्टि से देखते हैं। जब जनसंख्या नियंत्रण की बात होती है तो अधिकांश दल उसे मुस्लिम-विरोधी कह देते हैं, क्योंकि उन्हें वे अपने ‘वोट-बैंक’ के रूप में प्रयोग करते हैं।

स्वतंत्रता एवं अधिकारों की बड़ी गठरी लेकर चलने वाले लोकतांत्रिक समाज में जनसंख्या विस्फोट से अराजकता उत्पन्न हो सकती है। साथ ही भोजन, सुरक्षा, आवास, पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार आदि के लिए संघर्ष तेज हो सकता है। यहां तक कि शासन में सैन्य-हस्तक्षेप की आशंका भी बढ़ सकती है। आज भी अनेक अवसरों पर सरकार को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अर्धसैनिक बलों और कुछ स्थितियों में सैन्य बलों का प्रयोग करना ही पड़ता है। इस प्रवृत्ति पर विराम लगाना होगा। यदि हमें लोकतंत्र को बचाना है तो जनसंख्या नियंत्रण तो करना ही पड़ेगा। बढ़ती जनसंख्या अहम मानव संसाधन भी है। इसमें 68 प्रतिशत युवाओं और 48.5 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी संकेत करती है कि यदि उनका सदुपयोग किया जाए तो देश विकास की अभूतपूर्व ऊंचाइयां छू सकता है। इसके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश बढ़ाना होगा। नई शिक्षा नीति का उद्देश्य अच्छा है, मगर उसे जिस ढंग से लागू किया गया, उसने अध्ययन-अध्यापन को प्रभावित किया है। अब शिक्षा व्यवस्था मात्र परीक्षा केंद्रित बनकर रह गई है। असंख्य स्व-वित्तपोषित उच्च शिक्षण संस्थाओं के भारी भ्रष्टाचार के कारण ‘बोगस’ संस्थानों से निकले छात्र श्रेष्ठ शिक्षण संस्थाओं के छात्रों से ज्यादा अंक प्राप्त कर आगे निकल रहे हैं। क्या यह सब सरकार के संज्ञान में नहीं? शिक्षा व्यवस्था देश को ऐसी फसल दे रही है, जिसका दुष्परिणाम भावी पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा।

Aryavart Kranti
Author: Aryavart Kranti

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