जम्मू। आतंकवादी समूहों की ओर से अब रणनीति में बदलाव करते हुए ऊंची चोटियों को सुरक्षित पनाहगाह के रूप में इस्तेमाल किये जाने के बीच विशेषज्ञों का मानना है कि सुरक्षा बलों, विशेषकर सेना के लिए अब समय आ गया है कि वह अपनी रणनीति की समीक्षा करें और गुज्जर तथा बकरवाल खानाबदोश जनजातियों का विश्वास फिर से हासिल करें। इन जनजातियों के बारे में माना जाता है कि ये पहाड़ों की “आंख और कान” हैं। अधिकारियों और विशेषज्ञों का मानना है कि सुरक्षा बलों और दोनों समुदायों के बीच अविश्वास बढ़ रहा है जिससे सीमा सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण खुफिया जानकारी जुटाने में खतरा पैदा हो सकता है।
हम आपको बता दें कि पुंछ-राजौरी के बीहड़ पीर पंजाल क्षेत्र की गहन जानकारी और अटूट निष्ठा के चलते, लगभग 23 लाख की आबादी वाले गुज्जर और बकरवाल समुदाय दशकों से सेना के महत्वपूर्ण सहयोगी रहे हैं— जो आतंकवाद को पीछे धकेलने में अहम साबित हुए हैं। साझा बलिदान से मजबूत हुई इस दोस्ती ने जनजातियों को लगातार आतंकवादी हमलों का डटकर सामना करते देखा है। उनकी देशभक्ति की झलक रुखसाना कौसर की वीरता की कहानियों में साफ दिखाई देती है, जिन्होंने 2009 में लश्कर-ए-तैयबा के एक आतंकवादी को मार गिराया था, और राइफलमैन औरंगजेब, जिन्हें 2018 में आतंकवादियों ने अगवा कर उनकी हत्या कर दी थी और जिन्हें मरणोपरांत शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया था।
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, कई घटनाओं ने इस गठबंधन को टूटने के कगार पर ला खड़ा किया और दशकों से चले आ रहे विश्वास को कमजोर कर दिया। इनमें 2018 का कठुआ बलात्कार मामला और 2020 का अमशीपोरा फर्जी मुठभेड़ मामला शामिल है, जिसमें तीन गुज्जर युवकों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। सेना ने हालांकि अमशीपोरा मामले में एक कैप्टन को बर्खास्त करने जैसी कार्रवाई की, लेकिन समुदाय का कहना है कि ऐसी चीजें कभी होनी ही नहीं चाहिए थीं।
इस रिश्ते को सबसे ताजा झटका दिसंबर 2023 में लगा, जब पुंछ के टोपा पीर में सैनिकों पर घातक हमले के बाद सेना द्वारा हिरासत में प्रताड़ित किए जाने के बाद तीन नागरिकों की मौत हो गई। अधिकारियों ने बताया कि इन घटनाओं ने गुज्जर और बकरवाल युवकों को अलग-थलग कर दिया है, जिससे जमीनी स्तर पर खुफिया जानकारी में खतरनाक कमी पैदा हो गई है। उन्होंने बताया कि व्यवस्थागत समस्याओं ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है। उन्होंने कहा कि प्रतिबंधात्मक नीतियों ने कई गुज्जरों और बकरवालों को उनकी खानाबदोश जीवनशैली से दूर कर दिया है, जिससे उनकी आजीविका असुरक्षित हो गई है और उन दूरदराज के इलाकों में उनकी मौजूदगी कम हो गई है जहां वे कभी महत्वपूर्ण जानकारी देते थे। उन्होंने कहा कि स्थायी संचार ढांचे की कमी उनकी प्रभावी खुफिया जानकारी देने की क्षमता को भी प्रभावित करती है, जिससे क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए वर्षों से अहम रही यह साझेदारी खतरे में पड़ जाती है।
वरिष्ठ गुज्जर नेता और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव शाहनवाज चौधरी ने “विश्वास की कमी” पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि समुदायों को उचित महत्व नहीं दिया गया है। उन्होंने वन भूमि पर बकाया अधिकारों के मुद्दे पर प्रकाश डाला, जिसके लिए गुज्जर और बकरवाल समुदायों को अभी तक व्यक्तिगत दावे नहीं मिले हैं। वे लंबे समय से इन जमीनों पर मवेशी चराते रहे हैं। शाहनवाज चौधरी ने टोपो पीर घटना का भी उल्लेख किया, जिसके बारे में उनका मानना है कि इसे पाकिस्तान की आईएसआई द्वारा बढ़ावा दिया गया, जिससे समुदाय का विश्वास टूट गया और युवाओं को ऐसा महसूस हुआ कि सेना तथा जम्मू-कश्मीर प्रशासन दोनों ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया है। उन्होंने दोनों पक्षों के बीच बढ़ते अंतर के बारे में भी चेतावनी दी तथा जमीनी स्तर पर प्रशासन की निष्क्रियता की ओर भी ध्यान दिलाया।