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21 Dec 2024, Sat

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ एक सार्थक पहल

प्रभात पांडेय

केंद्र सरकार ने चुनाव सुधार की दिशा में बड़ा कदम उठाते हुए वन नेशन, वन इलेक्शन बिल को लोकसभा में पेश कर दिया है। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने मंगलवार 17 दिसंबर को विधेयक पेश किया। वन नेशन, वन इलेक्शन का वादा बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में किया था । कांग्रेस सहित लगभग अन्य सभी विपक्षी पार्टियां इस बिल का विरोध कर रही हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव साल 1952, 1957, 1962 और 1967 में एक साथ हो चुके हैं। हालांकि, इसकेबाद यह परंपरा कायम नहीं रह सकी। वहीं, सरकार ने ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ या ‘एक देश, एक चुनाव’ से जुड़ा विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया है। बता दें कि संविधान संशोधन विधेयक पास करने के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी, जबकि दूसरे विधेयक को सामान्य बहुमत से ही पास किया जा सकता है।
वन नेशन वन इलेक्शन का आशय यह है कि एक समय पर पूरे देश भर में एक साथ लोकसभा और विधान सभाव चुनाव संपन्न करवाए जाए। बता दें कि अभी तक देश भर में दोनों चुनाव अलग-अलग समय पर कराए जाते हैं, लेकिन अब मोदी सरकार इसे एक ही समय पर कराने के लिए कवायद कर रही है। इसके लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी, इसमें 8 सदस्य थे। कमेटी का गठन 2 सितंबर 2023 को किया गया था। इसी कमेटी ने 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। वहीं, अब इस बिल को कैबिनेट की बैठक में मंजूरी दी गई है, जिसके बाद अब इसे संसद में पेश किया गया।
केंद्र सरकार लंबे समय से यह दावा करती आ रही है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा क़दम है। इससे अलग-अलग चरणों में होने वाले चुनाव पर खर्च होने वाले पैसों की बचत होगी। साथ ही मैनपॉवर का भी सही इस्तेमाल हो सकेगा। आज़ादी के बाद भारत में पहली बार 1951-52 में आम चुनाव हुए थे। उस वक्त लोकसभा चुनाव के साथ-साथ 22 राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी कराए गए थे। ये पूरी प्रक्रिया क़रीब 6 महीने तक चली थी।
पहले आम चुनाव में 489 लोकसभा सीटों के लिए 17 करोड़ मतदाताओं ने वोट डाला था, जबकि आज भारत में वोटरों की संख्या लगभग 100 करोड़ हो चुकी है। 1957, 1962 और 1967 के चुनावों में भी लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे। हालांकि, उस दौरान भी कुछ राज्यों में अलग से चुनाव कराए गए थे, जैसे 1955 में आंध्र राष्ट्रम (जो बाद में आंध्र प्रदेश बना), 1960-65 में केरल और 1961 में ओडिशा में विधानसभा चुनाव अलग से हुए थे।
1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभाएं जल्दी भंग हो गईं और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इसके अलावा, 1972 में लोकसभा चुनाव समय से पहले कराए गए, जिससे लोकसभा और विधानसभा चुनावों का चक्र अलग हो गया। 1983 में भारतीय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार को दिया था। हालांकि, यह प्रस्ताव तब लागू नहीं हो पाया।
केंद्र सरकार का दावा है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा क़दम साबित होगा। पहले संसद के बाहर और अब संसद के अंदर ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लेकर पक्ष और विपक्ष आमने-सामने है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इसके पक्ष में है, साथ ही NDA कुनबे में शामिल लगभग सभी सहयोगी दलों का बीजेपी को समर्थन है। वहीं कांग्रेस खुलकर ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का विरोध कर रही है, कांग्रेस के साथ सपा, आरजेडी, AAP और डीएमके जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी विरोध कर रही हैं।
सरकार का कहना है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से सरकार का कामकाज आसान हो जाएगा। देश में बार-बार चुनाव होने से काम अटकता है। क्योंकि चुनाव की घोषणा होते ही आचार संहिता लागू हो जाती है। जिससे परियोजनाओं में देरी होती है और विकास कार्य प्रभावित होते हैं। सरकार का मानना है कि इससे चुनावी खर्च कम होगा, विकास कार्यों में तेज़ी आएगी और सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ड्यूटी से छुटकारा मिलेगा।
सरकार का तर्क है कि एक साथ चुनाव से खासकर विधानसभा चुनावों में सरकार, उम्मीदवारों और पार्टियों अलग-अलग खर्चा होता है, वो सब कम हो जाएगा। एक साथ चुनाव कराने से वोटर्स के रजिस्ट्रेशन और वोटर लिस्ट तैयार करने का काम आसान हो जाएगा। एक ही बार में ठीक से इस काम को अंजाम दिया जा सकेगा। कम चुनाव होने से राज्यों पर भी वित्तीय बोझ नहीं पड़ेगा।
हालांकि, विपक्षी पार्टियां इसमें कई खामियां गिना रही हैं। उनका कहना है कि ये संविधान के संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ है, इसके अलावा, कई दलों ने सवाल उठाया है कि यह प्रणाली छोटे दलों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है और लोकतंत्र की बहुलता को नुकसान पहुंचा सकती है। एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की संभावनाएं प्रभावित हो सकती हैं, क्योंकि वे स्थानीय मुद्दों को प्रमुखता से उजागर करने में सक्षम नहीं हो सकते। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के पास सीमित संसाधन हैं, , जबकि सामने राष्ट्रीय दलों के संसाधन होने की वजह से वो हावी हो सकते हैं।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं की शर्तों को लोकसभा की शर्तों के साथ समन्वयित करना है। मध्यावधि चुनाव या राष्ट्रपति शासन जैसी स्थितियों में, अगर कोई पार्टी बहुमत पाने में विफल रहती है, तो एक राष्ट्र एक चुनाव अवधारणा लागू होने पर इससे कैसे निपटना है, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है। दरअसल, आज के दौर में चुनाव बहुत महंगे हो चुके हैं।
सरकार का कहना है कि इस मामले पर समिति की अध्यक्षता करने वाले पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने कहा कि केंद्र सरकार को आम सहमित बनानी होगी। यह मुद्दा किसी किसी दल के हित में नहीं है, बल्कि देश के हित में है। यह देश में बड़ा बदलाव लाएगा। इसे लागू होने की वजह से देश की जीडीपी में 1 से लेकर 1।5 प्रतिशत की वृद्धि होगी। कोविंद की अध्यक्षता वाली एक उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट में इन सिफारिशों को रेखांकित किया था। पीएम मोदी भी कई बार वन नेशन वन इलेक्शन की वकालत कर चुके हैं।
ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि एक साथ चुनाव होने से संसाधन तो एक बार जुटाने होंगे पर उसके बाद व्यवस्था सुनिश्चित हो जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी कई मौकों पर कह चुके हैं कि बार-बार चुनाव कराने से देश की प्रगति में बाधा आती है।

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