वॉशिंगटन, एजेंसी। कहते हैं कि जंग अगर रुक भी जाए तो उसका मतलब शांति नहीं है। क्योंकि शांति जल्दी बहाल नहीं होती। उसमें काफी वक्त लग जाता है। इसीलिए शायद जंग के बाद शांति नहीं सीजफायर आता है। ईरान और इजराइल के बीच 12 दिन के खूनी संघर्ष के बाद अब सीजफायर हो गया। भारत-पाकिस्तान की तरह ही इसका भी ऐलान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया। पर मुश्किल ये है कि भले सीजफायर हो गया मगर जमीन पर हालात सामान्य नहीं।
इसी समय में शांति के पैरोकार बनकर खुद को पेश करने वाले ट्रंप अमेरिका हथियार के कारोबार को और हरा भरा करने में जुट गए हैं। ऐसे इशारे नीदरलैंड्स की राजधानी द हेग में 24-25 जून को होने वाली नाटो समिट से मिल रही है। जहां इसके सदस्य देशों के रक्षा बजट को लेकर बड़ा फैसला लिया जा सकता है। अमेरिका की मंशा है कि नाटो देश अब अपनी GDP का 5 फीसदी हिस्सा डिफेंस पर खर्च करें यानी मौजूदा जो दायरा है, उस से ढाई गुना ज़्यादा। इस प्रस्ताव ने यूरोपीय देशों के भीतर गंभीर मतभेद खड़े कर दिए हैं। कुछ देश ट्रंप की इस नई मांग के समर्थन में हैं, जबकि स्पेन जैसे देश इसका खुला विरोध कर रहे हैं। ऐसे में जरूरी है ये समझना कि नाटो समिट का एजेंडा क्या है, अमेरिका किस रणनीति के तहत ये दबाव बना रहा है और यूरोपीय देशों को इस पर आपत्ति क्यों है?
नाटो समिट: क्यों खास है ये बैठक?
नाटो (NATO) यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन के सदस्य देश हर साल मिलकर सुरक्षा और रक्षा से जुड़े अहम मुद्दों पर चर्चा करते हैं। इस बार की समिट इसलिए खास है क्योंकि इसमें सिर्फ सुरक्षा पर ही नहीं, बल्कि आने वाले सालों के डिफेंस खर्च पर बड़ा फैसला होने वाला है।
अभी तक नाटो देशों का लक्ष्य था कि वे अपनी GDP का कम से कम 2% डिफेंस पर खर्च करें। लेकिन 2024 में भी लगभग एक-तिहाई सदस्य इस टारगेट को नहीं छू सके हैं। अब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप फिर से गठबंधन पर दबाव बना रहे हैं कि यह टारगेट बढ़ाकर 5% किया जाए।
कौन कितना खर्च कर रहा है?
2024 के अनुमान के मुताबिक, अगर हम देखें कि नाटो देश अपनी जीडीपी का कितना हिस्सा रक्षा पर खर्च कर रहे हैं, तो तस्वीर साफ है। कुछ देश खूब खर्च कर रहे हैं, तो कुछ अभी भी पीछे हैं। सबसे ज्यादा खर्च करने वालों में पोलैंड सबसे आगे है, जो अपनी जीडीपी का 4.12% सिर्फ डिफेंस पर लगा रहा है। इसके बाद एस्टोनिया (3.43%) और अमेरिका (3.38%) का नंबर आता है। लातविया (3.15%) और ग्रीस (3.08%) भी तीन फीसदी से ऊपर हैं, यानी इन देशों ने सुरक्षा को अपनी सबसे बड़ी प्राथमिकता बना लिया है।
वो देश जो रक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च करते हैं।
अब आते हैं उन देशों पर जो 2 फीसदी से ऊपर या उसके आसपास खर्च कर रहे हैं, जो कि नाटो की गाइडलाइन के मुताबिक ठीक-ठाक माने जा सकते हैं। इनमें लिथुआनिया, फिनलैंड, यूके, डेनमार्क, रोमानिया, नॉर्थ मैसेडोनिया, नॉर्वे, बुल्गारिया, जर्मनी, स्वीडन, हंगरी, तुर्किये, फ्रांस, नीदरलैंड, अल्बानिया, मोंटेनेग्रो और स्लोवाक रिपब्लिक जैसे देश शामिल हैं। ये सभी 2 से 2।85% के बीच खर्च कर रहे हैं, यानी मानक को या तो पूरा कर चुके हैं या उससे थोड़ा आगे-पीछे हैं।
2 फीसदी से भी कम खर्च करने वाले देश
वहीं जिन देशों की डिफेंस पर खर्च की हिस्सेदारी 2 फीसदी से कम है, उनमें शामिल हैं क्रोएशिया (1.81%), पुर्तगाल (1.55%), इटली (1.49%), कनाडा (1.37%), बेल्जियम (1.30%), लक्ज़मबर्ग (1.29%), स्लोवेनिया (1.29%) और सबसे कम स्पेन (1.28%)। ये वो देश हैं जिन्हें अमेरिका और नाटो बार-बार याद दिला रहे हैं कि अगर गठबंधन को मज़बूत रखना है, तो अपनी जेब ढीली करनी होगी। यानि कुल मिलाकर, अमेरिका का ये कहना कि “कुछ देश सिर्फ सुरक्षा मुफ्त में पा रहे हैं”, पूरी तरह गलत नहीं है।
ट्रंप का दबाव: अमेरिका क्यों चाहता है ज्यादा खर्च?
डोनाल्ड ट्रंप लंबे समय से यह कहते आए हैं कि अमेरिका अकेले नाटो की सुरक्षा की कीमत चुका रहा है, जबकि बाकी देश अपना हिस्सा नहीं निभा रहे। ट्रंप की योजना के मुताबिक, नाटो देशों को अपनी GDP का 3.5% सीधे मिलिट्री खर्चों पर और 1.5% साइबर सिक्योरिटी, इन्फ्रास्ट्रक्चर और लॉजिस्टिक्स जैसे सपोर्ट सिस्टम्स पर खर्च करना होगा।
इस दो-स्तरीय प्रस्ताव पर कई देशों ने समर्थन तो किया है, लेकिन साथ ही समयसीमा और संसाधनों को लेकर अपनी चिंताएं भी जाहिर की हैं। कई एक्सपर्ट्स का मानना है कि अमेरिका इस डिफेंस बजट बढ़ोतरी के जरिए अपने हथियार उद्योग को मज़बूत करना चाहता है। ज्यादा डिफेंस बजट का मतलब है ज्यादा खरीद और ज्यादा ऑर्डर और इसमें सबसे बड़ा खिलाड़ी अमेरिकी कंपनियां हैं।
किसे मंजूर, किसे ऐतराज?
इस प्रस्ताव को लेकर यूरोप बंटा हुआ है। जर्मनी, नीदरलैंड और बाल्टिक देश जैसे लिथुआनिया 3.5% खर्च के पक्ष में हैं क्योंकि रूस का खतरा उनके दरवाजे तक आ चुका है। लेकिन स्पेन, इटली और कई अन्य देश इसे अव्यावहारिक बता रहे हैं। स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज ने साफ कहा है कि उनकी सरकार 2.1% से ज्यादा रक्षा पर खर्च नहीं कर सकती। उनके मुताबिक हम नाटो की जरूरतों को 2.1% खर्च में पूरा कर सकते हैं। इससे ज्यादा करना संभव नहीं है। दरअसल, स्पेन नाटो का सबसे कम खर्च करने वाला सदस्य है। 2024 में उसका रक्षा बजट GDP का केवल 1.28% था। ऐसे में अचानक 5% खर्च का दबाव उसके लिए आर्थिक और राजनीतिक दोनों लिहाज से भारी पड़ सकता है।
2032 या 2035? समयसीमा पर फंसा पेंच
नाटो की अंदरूनी बहस केवल खर्च की मात्रा पर नहीं, बल्कि समयसीमा पर भी है। कुछ देश चाहते हैं कि ये नया टारगेट 2035 तक लागू किया जाए, जबकि अमेरिका 2030 तक इस लक्ष्य को हासिल करना चाहता है। बाल्टिक देश 2030 की बात कर रहे हैं वहीं इटली जैसे देश इसे 10 साल का लंबा प्रोसेस मानते हैं। नाटो के नए महासचिव मार्क रूटे ने बीच का रास्ता सुझाया है कि 2032 तक 3.5% खर्च और बाक़ी 1.5% में लचीलापन। इस प्रस्ताव पर हैग समिट में मुहर लग सकती है।
क्या बदलेगा समिट के बाद?
अगर नाटो समिट में 5% डिफेंस खर्च का नया टारगेट पास हो जाता है, तो ये नाटो के इतिहास का सबसे बड़ा बदलाव होगा। इससे यूरोप की सैन्य शक्ति बढ़ेगी, लेकिन कई देशों की आंतरिक राजनीति भी प्रभावित हो सकती है। स्पेन जैसे देशों में पहले से ही गठबंधन सरकारें और आर्थिक चुनौतियां हैं, ऐसे में ज्यादा डिफेंस खर्च वहां की सरकारों के लिए गले की हड्डी बन सकता है। दूसरी ओर रूस और चीन के खिलाफ नाटो की तैयारी और स्पष्टता बढ़ेगी जिससे अमेरिका के प्रभाव को भी मजबूती मिलेगी।
ईरान-इजराइल में सीजफायर के बाद अब हथियारों का बाजार बढ़ाने चला अमेरिका, नाटो समिट में डिफेंस बजट अहम मुद्दा
